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पहाड़ो के कई शहर जोशीमठ की कतार में …ज़िम्मेदार ?

पहाड़ो के कई शहर जोशीमठ की कतार में …ज़िम्मेदार ?
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भीमताल – भवाली – नैनीताल -श्यामखेत – रानीखेत – अल्मोड़ा – कौसानी – बागेश्वर -पिथौरागण अन्य शहर कंक्रीट से बुलंद इमारतों में तब्दील ?
विगत 21 वर्षो में पहाड़ो में सर्वाधिक -होटल -रिसोर्ट -डुप्लेक्स आखिर ?
90 के दशक के पश्चात पर्यटन के नाम पर पहाड़ी शहरो में सर्वाधिक व्यावासिक मॉल – होटल – रिसोर्ट के मालिक ?
पहाड़ो में बहुमंजिला निर्माण को कतई स्वीकृति न मिले.
वृक्षारोपण करने वाली संस्थायें केवल स्थानीय प्रजाति के पेड लगायें.
प्राकृतिक जल स्त्रोतों का पुन सर्वे हो, इनके आसपास भविष्य में कोई भी निर्माण न हों.
पहाड़ो शहरो में कम से कम वाहनों को प्रवेश मिले, ताकि जमीन पर दबाब कम हो और संवेदनशील इलाकों में ध्वनि प्रदूषण कम हो. शहर के निचले
हिस्सों में किक्रेंग जैसी कई पार्किंग बननी चाहिए
हर बात में पर्यटन रोजगार की तोतारंटत बंद होनी चाहिए. जोशीमठ को देखिये, जो आज पर्यटन और तीर्थाटन की धमाचौकड़ी की कीमत चुकाते हुए प्रलय
की खाई में समाने जा रहा है. कल पूरी तरह बर्बाद होने से अच्छा है कि नियंत्रित पर्यटन शुरू हो, ताकि रोजगार और धरती बची रहे.

संवाददाता अतुल अग्रवाल ‘ हालात-ए-शहर ” हल्द्वानी | आज पहाड़ो का विकास एवं पर्यटन के नाम पर पहाड़ो से प्राकृतिक सौंदर्य हरियाली को खत्म करते हुए बड़े बड़े बिल्डर्स द्वारा पहाड़ो का सीना चीरते हुए पहाड़ो को कंक्रीट की बड़ी बड़ी इमारतों में तब्दील कर दिया गए है | यदि बात की जाये बाहरी राज्यों के बिल्डर्स को 2 % कमीशन वाले कारोबारियों ने सत्ता के गलियारों में ऊँची पहुँच पकड़ के संरक्षण में दिया बढ़ावा जिसके परिणाम आज बड़े बड़े रिसोर्ट – होटल्स – डुप्लेक्स का निर्माण मनको को ताक पर रख धड़ल्ले से किया जा रहा है | जिसके गंभीर परिणाम 2013 एवम आज सामने आ रहे है , भविष्य में और भी भयावक परिणाम उत्तराखण्ड की जनता को भुगतने होंगे | आखिर ज़िम्मेदार >?

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1980 के दशक के शुरूआती सालों में पहाड़ो में दिल्ली की बिल्डर लाबी की आमद क्या हुई, वन पर्यावरण और ब्रिटिशकालीन भवन वास्तुकला का जनाजा निकलना शुरू हुआ.1984 के आसपास नगर पालिका से भवननिर्माण स्वीकृति का अधिकार छीनकर नवगठित देहरादून विकास प्राधिकरण बनाकर उसे दे दिया गया , फिर क्या प्राधिकरण आग मूतने लगा.उसकी सरपरस्ती में बाहरी पूंजीपतियों, बाहरी नौकरशाही और दलालों के गठजोड ने पहाड़ो की ऐतिहासिक पर्यावरणीय बसावत की डेमोग्राफी बर्बाद कर दी.
पुराने भवनों को तोडकर कंकरीट के भारी भरकम बहुमंजिला होटल, रिसोर्ट – एपार्टमेंट, काटेजेज बने. हमारे दबाब पर 1987 में तत्कालिन जिलाधिकारी ने एक शासनादेश जारी कर ” सौ साल या इससे अधिक पुराने भवनों को संरक्षित रखने’ का हुक्म दिया. पर सत्ता के गलियारों के ताकतवर लोगों, दलालों और बिल्डरों ने इस शासनादेश को रददी के हवाले कर दिया.

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अंग्रेजों ने 1820 के दशक में पहाडी शहरो में लकडी और टिन के एक मंजिला बंगले, कोठी या घर का निर्माण शुरू किया. ताकि जमीन पर दबाव कम रहे और प्राकृतिक संतुलन बना रहे.नगरपालिका के पुराने बायलाज उठा लो, उसमें एक एकड में एक बडा मकान और कुछ सर्वेंटस क्वार्टर ही बनाने की इजाजत थी. 20 वीं सदी में सीमेंट आने के बाद भी अंग्रेजों ने सीमेंट के बजाय चूने के निर्माण को प्राथमिकता दी. इसीलिए बडे भूकंपों में अधिकतर पुराने भवन आज तक संरक्षित हैं. 1960 के दशक तक अंग्रेजी जमाने के नियम कायदों का जोर था, इसलिए काफी कुछ बचा रहा- जंगल, पानी के स्त्रोत, हरियाली और भव्य भवन वास्तुकला और रखरखाव.

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